Friday, May 20, 2011

उनकी ज़िन्दगी, उनका भय, उनके सपने - The Lives of Others

Florian Henckel von Donnersmarck (नाम रोमन में क्योंकि जर्मन में इसका सही उच्चारण मुझे पता नहीं है) की " लाइव्ज़ ऑफ अदर्स" एक ऑस्कर विजेता फ़िल्म है जिसमें पूर्वी ज़र्मनी के लॊगों की ज़िन्दगी "स्तासी" भय से आक्रांत है। जाने माने हिन्दी लेखक निर्मल वर्मा का एक उपन्यास है "रात का रिपोर्टर" इस उपन्यास का हर पाठक इसे पढ़ते हुए भारत में आपातकाल के ज़माने के उस अनदेखे ठंडे डर को अपनी हड्डियों में सिहरता हुआ महसूस कर सकता है। हर आदमी के जेहन में एक डर हमेशा चिपका रहता था कि उसे कोई देख रहा है और उसकी "करतूतों" की लम्बी फेहरिस्त बना रहा है, जिसके आधार पर यह आपातकालीन सरकार कभी भी उसे यातनामय कारावास में डाल सकती है। लाइव्ज़ ऑफ अदर्स में भी निर्देशक ने पूर्वी ज़र्मनी में "टोटलेटेरियन स्टेट" द्वारा अपने नागरिकों के उपर निगाह रखने के लिए एक आंतरिक गुप्तचर संस्था "स्तासी" के ख़ौफनाक डर को सामने लाने की कोशिश की है। स्तासी की तुलना संस्थागत स्तर पर आपातकालीन भारतीय आंतरिक गुप्तचर संस्था आई.बी से की जा सकती है लेकिन स्तासी और आई.बी के काम करने के तरीको में बहुत फर्क है। इन्दिरा गाँधी सरकार ने जिस तरह आई.बी का इस्तेमाल अपने राजनैतिक विरोधियों के ख़िलाफ किया था, वैसे ही पूर्वी ज़र्मन सरकार ने स्तासी का इस्तेमाल अपने राजनैतिक और वैचारिक विरोधियों के लिए किया था.
ये फ़िल्म की खूबसूरती है कि इसमें स्तासी का ख़ौफ बिना किसी अतिरंजित हिंसा को दिखाए पूरी फ़िल्म में फैला है और अपने दर्शकों को भी इस सर्द डर में लपेट लेता है. कुछ लोग फ़िल्म में दिखाए गए इस खामोश डर से सहमत नहीं हो सकते हैं और इसके लिए उनके अपने तर्क भी हैं जिनसे शायद हमें भी सहमत होना पड़े. मसलन फ़िल्म "स्तासी" के संस्थागत आतंक को चिह्नित करने की बजाए एक भ्रष्ट सास्कृतिक मंत्री और एक प्रसिद्ध नाटककार के व्यक्तिगत उठापटक में शामिल हो जाती है, जहाँ मन्त्री नाटककार की पार्टनर के साथ जबर्दस्ती सम्बन्ध बनाता है। इस पूरे structure में ऎसा लगता है कि तन्त्र तो बहुत ही जिम्मेदारी और ईमानदारी से चल रहा है और सिर्फ़ मन्त्री ही भ्रष्ट है। इस तरह फ़िल्म "स्तासी" के आतंक की व्यापकता को कमतर करते हुए व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आतंक तक सीमित कर देती है। फ़िल्म के मुख्य पात्र नाटककार Georg Dreyman का किरदार भी बहुत वास्तविक नहीं लगता है। मसलन, फ़िल्म में उसे कम्यूनिस्ट रिजिम के प्रति वफ़ादार, जिम्मेदार और एक महान लेखक के रूप में स्थापित किया गया है जिसके व्यक्तिगत सम्बन्ध रिजिम के उच्च पदों पर आसीन लोगों से हैं। सवाल यह है कि कठिन कम्यूनिस्ट रिजिम में कोई व्यक्ति तीन अलग-अलग खासियतों (व्यक्तिगत ईमानदारी, कम्यूनिस्ट रिजिम के प्रति जिम्मेदार समर्पण एवं सहयोग और बौधिकता) के साथ कैसे रह सकता है? इनमें से कोई दो खासियतें एक समय में किसी व्यक्ति में एक साथ हो सकती हैं, जैसे, कोई व्यक्ति ईमानदार और कम्यूनिस्ट रिजिम के प्रति जिम्मेदार एवं सहयोगीहो सकता है लेकिन उसे फिर बौधिक नहीं कहा जा सकता, कोई बौधिक और कम्यूनिस्ट रिजिम के प्रति जिम्मेदार एवं सहयोगीहो सकता है लेकिन फिर वह ईमानदार नहीं हो सकता, इसी तरह कोई बौधिक और ईमानदार हो सकता है लेकिन वह फिर कम्यूनिस्ट रिजिम के प्रति जिम्मेदार एवं सहयोगी नहीं हो सकता। लेकिन Georg Dreyman के किरदार में ये तीनों ही खूबियाँ हैं।
इन सब कुछ के बावजूद यह एक सुन्दर फ़िल्म है, जो आपको पूरे समय बाँधे रखती है और अपने समय में ले जाती है। लेकिन अभी भी हमें उस फ़िल्म का इंतजार है जो German Democratic Republic (GDR) Regime और 'स्तासी' के आतंक को सही और व्यापक अर्थों में दर्शा सके। Good Bye Lenin इस कतार में एक बेहतर फ़िल्म है लेकिन उसमें भी अपनी कई मौलिक समस्याएं हैं जिन पर फिर कभी "बतकही" में बहस तलब की जाएगी।

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