Monday, February 23, 2009

दिल्ली 6 : ह्क़ीकत और फ़साने का ग्रे शेड

राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि "दिल्ली 6" बनाना उनके फ़िल्मी सफ़र में ग्रेजुएट होने के जैसा है. फ़िल्म देखकर लगा कि राकेश ने ग्रेजुएशन अच्छे नम्बरों से पास कर लिया है. किसी फ़िल्मकार के लिए बहुत जरूरी होता है कि उसके आगे बढ़ते रहने का सफ़र जारी रहे, और आगे बढ़ने का मतलब हमेशा यह होगा कि उसका आने वाला काम पिछले काम में कुछ नया जोड़े, उसे और बेहतर बनाए और उसे नई ऊंचाइयाँ दे. राकेश ओमप्रकाश मेहरा के कामों से लगता है कि अभी हमें और भी बेहतर चीजें देखने को मिलेंगी, क्योंकि पोस्ट ग्रेजुएशन और पी.एच.डी. तो अभी बाकी ही हैं.
दिल्ली 6 में दिल्ली की धड़कन है, आप चाँदनी चौक की भीड़ को, उसकी तंग गलियों को, वहाँ के लोगों को, उनकी गन्ध को छू सकते हैं. राकेश की टीम में बड़े नामचीन कलाकार हैं. सभी ने अपनी जिम्मेदारियाँ बखुबी निभाई हैं. दिल्ली 6 दिल्ली के सामाजिक ताने-बाने की बारीक रेशों से बुनी गई एक चादर है जिसमें वहाँ के मूल रंगों के पच्चीकारी है, रिश्तों की गर्माहट भी है, चादर में कहीं-कहीं छेद भी हैं, कहीं से चादर उघड़ भी रही है और कहीं इस पर लगा पैबन्द भी अलग से दिखाई देता है. आप को बार-बार यह सोचना पड़ेगा कि फ़िल्म की दिल्ली और जो दिल्ली हम देखते हैं, जिसे जानते हैं, उसमें हक़ीकत के ज्यादा करीब कौन है... राकेश की इस फ़िल्म में रूपकों (Metaphors) का जबर्दस्त इस्तेमाल किया गया है. मसलन, रामलीला और दिल्ली 6 के आम आदमी की ज़िन्दगी, कबुतर (जिसके पंख बन्धे हुए हैं) और बिट्टू, काला बन्दर और इंसान के अन्दर का राक्षस, पागल फ़कीर और उसका आईना. राकेश के रूपक फ़िल्म पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं. इनके जरिए राकेश ने कई मुद्दों को बड़ी आसानी से handle किया है. रंग दे बसंती और दिल्ली 6 का पहला अंतर तो metaphors के इस्तेमाल का ही है.
सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं को जितनी सुक्ष्मता से फ़िल्म में पिरोया गया है उतनी ही बेबाकी से उसके दूसरे पहलुओं को उधेड़ा भी गया है. कहने को हम मॉडर्न हो गए हैं लेकिन हमारे अन्धविश्वास की ग्रंथि अभी जस की तस है. एक तरफ तो घर के अन्दर और बाहर के प्रेम को देखकर ऎसा लगता है कि स्वर्ग कहीं है तो यहीं है, लेकिन जैसे ही आप उस प्रेम की परतों को हटाना शुरू करते हैं तो उसके अन्दर छिपे घृणा, ईर्ष्या, बेइमानी, फरेब, छुआछूत के कई कई वीभत्स रूप दिखने लगते हैं. इस फ़िल्म मे राकेश रिश्तों की बुनावट की जटिलताओं में और गहरे जाते हैं. समाज में कुछ भी काला या सफेद नहीं है. लोग वही हैं जो टूट कर मोहब्बत भी करते हैं और उतनी ही शिद्दत से नफ़रत भी.
आज जिस समय और समाज में हम जी रहे हैं वहाँ रिश्तों में ऎसी मोहब्बत और गर्माहट कम ही देखने को मिलती है. नफ़रत का बोलबाला ज्यादा है. नफ़रत की राजनीति हो रही है, जो मोहब्बत के पैरोकार हैं वे भी नफ़रत की ही बात करते हैं. इसी देशकाल में राकेश दिल्ली 6 में एक आशावादी सोच के साथ अपनी फ़िल्म प्रस्तुत कर रहे हैं, जहाँ उन्हें लगता है कि इस अन्धेरे के बाद फिर उजाला होगा. फ़िल्म में अन्धेरे की काली रात ज्यादा लम्बी नहीं है, सुबह का उजाला जल्दी जाता है, लेकिन असल ज़िन्दगी में नफ़रत की इस काली रात के बाद का उजाला अभी दिखाई नहीं दे रहा है.
फ़िल्म के मुख्य किरदार रौशन (अभिषेक बच्चन) और बिट्टू (सोनम कपूर) का काम उम्दा है. वहीदा रहमान, ऋषि कपूर, ओमपुरी, प्रेम चोपड़ा, सुप्रिया पाठक, अतुल कुलकर्णी, दिव्या दत्ता इन सभी ने भी काफी अच्छा अभिनय किया है.
अभिषेक की यह शायद पहली फ़िल्म होगी जिसकी सफलता में उनकी अहम हिस्सेदारी को स्वीकार किया जाएगा. अभिषेक एक अच्छे कलाकार हैं और उनसे आप कुछ खास तरह की भूमिकाएं काफी अच्छे ढंग से करवा सकते हैं. इस फ़िल्म में वो एक ऎसे एन.आर.आई. की भूमिका में हैं जिसकी परवरिश अमरिका में होती है और उनके माता-पिता कुछ बुरे अनुभवों के बाद भारत छोड़ अमरिका में बस जाते हैं, बावजूद इसके, वे अपनी यादों और संस्कारों को छोड़ नहीं पाते हैं. रौशन (अभिषेक बच्चन) इन्हीं तनावों और दोराहों को देखते हुए बड़े हुए हैं. रौशन एक ऎसा युवा है जिसका बाहरी लिबास तो पश्चिम के आधुनिक रंग में रंगा हुआ है लेकिन उसके अन्दर की आत्मा में ठेठ भारतीयता का प्रभाव बहुत गहरा है. यह युवा अपने इन्हीं दो विरोधाभासों के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश में लगा है. अभिषेक बच्चन ने अपनी अदाकारी में इस नौजवान के इन तनावों और आकांक्षाओं की बारीकियों की ज़हीन बुनावट पेश की है.
बिट्टू (सोनम कपूर) की यह दूसरी फ़िल्म है. उनकी ताजगी पूरी फ़िल्म में छलकती रहती है और सबको तरोताजा कर देती है. बिट्टू एक आम मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की है जिसे अपने परिवार और समाज के रीति रिवाजों को भी निभाना है और अपने दिल की आवाज़ सुन कर अपनी एक अलग पहचान भी बनानी है. दिल की आवाज़ और रीति रिवाज अक्सर आपस में टकराते हैं और बिट्टू हमेशा कोई नया रास्ता निकालने की जुगत में लगी रहती है. बिट्टू की इच्छाएं, उसकी अपेक्षाएं एक आम भारतीय लड़की की इच्छाएं और अपेक्षाएं हैं जो परिवार और समाज की मान्यताओं के बोझ तले घुट घुट कर दम तोड़ देती हैं, लेकिन इस हादसे की किसी को कोई खबर नहीं होती है. सोनम कपूर ने इस आम लड़की की इच्छाओं, अपेक्षाओं खुशियों और दुखों को सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जिया है. इस किरदार की इच्छाओं, अपेक्षाओं खुशियों और दुखों के संगीत को आप सोनम की अदाकारी में सुन सकते हैं.
एक दादी, जो मन्दिर जाती है, तुलसी में पानी डालती है, अपनी मुसलमान बहु से बहुत प्यार भी करती है और मरने के लिए अमरिका से भारत आती है, यहाँ मरने की तैयारी करती है ताकि अपनों के बीच मर सके. वहीदा रहमान ने इस दादी की आस्थाओं, प्रेम और दो संस्कृतियों के तनावों और दुखों को एक साथ बहुत ही खूबसूरती के साथ इस फ़िल्म में जीवंत किया है. अली अंकल (ऋषि कपूर), एक ज़िन्दादिल दिल्ली वाला, एक उर्मदराज प्रेमी, दिल्ली का एक मध्यवर्गीय आम आदमी जो वहाँ के तौर-तरीकों से वाकिफ़ है. ऋषि कपूर दिखते भी अच्छे हैं और दिखाते भी अच्छा हैं. मदन गोपाल (ओमपुरी), एक पितृसतात्मक परिवार का मुखिया, बिट्टू के पिता, रौशन के रिश्ते के चचा, इनके लिए बेटियाँ और औरतें घर की चारदीवारी के अन्दर रहने वाले प्राणी हैं, जिन्हे अपने बारे में सोचने का कोई हक़ नहीं है. मदन गोपाल जी को लगता है कि वे ही इन प्राणियों का उद्धार कर सकते हैं, खासकर अपनी बेटी बिट्टू का. वैसे मदन गोपाल और उनके भाई की तनातनी के बीच इनकी बहन यानि बिट्टू की बुआ पूरी फ़िल्म में कंवारी ही रह जाती है. मदन गोपाल जी समझदार इतने हैं कि बिट्टू की शादी के लिए "योग्य वर" के लिए और विरादरी में अपनी नाक ऊँची रखने के लिए नए जमाने के लालाजी (प्रेम चोपड़ा) के महाजनी झाँसे में बिना किसी दिक्कत के फंस जाते हैं. और प्रेम चोपड़ा साहब जिस बात के लिए प्रसिद्ध हैं वो इस फ़िल्म में भी लालाजी के उनके किरदार में दमकता है. सुप्रिया पाठक की अदाकारी के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है. उनकी अदाकारी घर के अन्दर की देसी दिल्ली की सोन्धी गन्ध का एहसास कराती है, उसे जीवंत बनाती है. अतुल कुलकर्णी ने गोबर (एक बेवकूफ समझा जानेवाला आदमी) का किरदार और दिव्या दत्ता ने जलेबी (एक अछूत झाडू लगाने वाली) का किरदार बहुत ही सुंदर ढंग से निभाया है. ये किरदार दिल्ली 6 की सुन्दर दिल्ली के कमजोर धागे और पैबन्द हैं जिन्हें बहुत ही सही ढंग से राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल किया है और इन कलाकारों ने इसमें जान डाल दी है. फ़िल्म में दो बच्चे भी हैं, लेकिन उनका काम बड़ों से कम नहीं है. फ़िल्म में बच्चों के नज़रिए से भी चीजों को देखने की कोशिश की गई है.
फ़िल्म में यदि संगीत की बात की जाए तो बात पूरी नहीं होती है, और जब .आर.रहमान का संगीत हो तब तो यह बहुत ही लाजमी हो जाता है. रहमान को स्लमडॉग मिलेनायर के लिए ऑस्कर मिल चुका है. दिल्ली 6 का संगीत भी बहुत अच्छा है. इसका एक गाना "मसक्कली मटक्कली" तो सबकी ज़ुबान पर चढ़ ही चुका है. बाकी के गाने भी अपना रंग दिखाने लगे हैं. फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर चाँदनी चौक की ज़िन्दगी का संगीत है.
राकेश ओमप्रकाश मेहरा शायद प्रसून जोशी के शब्दों, .आर. रहमान के संगीत और अमिताभ बच्चन की आवाज़ में अपनी फ़िल्म का सन्देश कुछ इस तरह देना चाहते हैं...
ज़र्रे ज़र्रे में उसी का नूर है
झाँक खुद में वो न तुझसे दूर है
इश्क है उससे तो सबसे इश्क कर
इस ईबादत का यही दस्तूर है
इसमें उसमें और उसमें है वही
यार मेरा हर तरफ भरपूर है...