Thursday, December 4, 2008

The 400 Blows

Directed & Produced by François Truffaut
Written by François Truffaut, Marcel Moussy
Starring: Jean-Pierre Léaud, Claire Maurier, Albert Rémy, Guy Decomble
Music by Jean Constantin. Cinematography: Henri Decaë
Release date(s): Flag of France May 4, 1959, Flag of the United States November 16, 1959
Running time: 99 min. Language: French. Distributed by Cocinor

द ४०० ब्लोज़ फ्रांसुआ त्रूफो की अपनी जीवनी पर आधारित फ़िल्म है। यह फ़िल्म किशोरवय बच्चों के उपर बनी कुछ सबसे अच्छी फ़िल्मों में शुमार की जाती है. इस फ़िल्म में अंटोनी नाम के एक लड़के का बचपन है. उसका बचपन उसके अपने घर में माता पिता की अनदेखी और स्कूल में बहुत ही कठोर किस्म के शिक्षकों के व्यवहार के बीच घुट रहा है. इस घुटन की जानकारी किसी को नहीं है. यह घुटन जब अनजाने में ही अपनी मुक्ति के लिए ज़िंदगी के दूसरे रास्तों पर भटकने लगता है तब क्या - क्या होता है जो उस मासूम अंटोनी के साथ नहीं होना चाहिए था, जिसके लिए वो कत्तई जिम्मेदार नहीं था, इन्हीं कुछ बारीक सवालों और तथ्यों का बहुत ही संवेदनात्मक चित्रण इस फ़िल्म में किया गया है. इस फ़िल्म में आप त्रूफो के बचपन के कुछ बहुत ही व्यक्तिगत पहलुओं का अनुभव करेंगे. फ़िल्म का मुख्य किरदार अंटोनी अपने फ्लैट के पिछवाड़े में बने एक छोटे से कमरे में महान फ्रेंच लेखक बाल्ज़ाक को अपनी भक्ति भावना प्रदर्शित करने के लिए उसके पोस्टर के सामने मोमबत्ती जलाता है और फिर घर में आग लगने जैसी स्थिति पैदा हो जाती है. उसे बाल्ज़ाक की रचनाएं बहुत पसन्द हैं और इसी छोटे से कमरे में अंटोनी बाल्ज़ाक की किताबों में खोया रहता है.
त्रूफो ने इस फ़िल्म में बच्चे की उन सभी हरकतों का जिक्र किया है जिसे हमारे 'सभ्य समाज' में ग़लत कहा जाता है. लेकिन बच्चा यह सब कैसे और क्यों करता है इसका बहुत ही तार्किक sequence इस फ़िल्म में देखा जा सकता है. मसलन, यदि हम उसके स्कूल से शुरुआत करें, तो स्कूल उसके लिए एक ऎसी जगह बन गई है जहाँ परिस्थितिवश उसे अनजाने में ही ज्यादातर शिक्षकों का कोपभाजन बनना पड़ता है, जबकि सामान्यत: उसकी कोई गलती नहीं होती है. शिक्षक उसके साथ एक शैतान बच्चे की तरह व्यवहार करते हैं, उसे बात बात पर सजा दी जाती है और इस तरह का व्यवहार उसके अन्दर एक कुंठित विद्रोही स्वभाव को जन्म देता है. एक 14 साल के बच्चे के शरीर के भीतर एक व्यस्क मानसिकता जन्म लेने लगती है. उसके इन बदलावों को उसके दूसरे कामों में देखा जा सकता है. जैसे वो अपने दोस्त के कहने पर अपने पिता के ऑफिस से टाइपराइटर चुरा लेता है और उसे बेचने की कोशिश करता है लेकिन जब वह इसमें सफल नहीं होता है तो वापस उसे ऑफिस में रखने जाता है जहाँ उसे गार्ड पकड़ लेता है और उसके पिता को बुलाता है. इस सीन में त्रूफो का सिनेमैटिक इंटेलिजेंस दिखता है. जब वह टाइपराइटर रखने जाता है तो उसने एक हैट लगाई होती है जिसे वह पकड़े जाने के बाद उतारने की कोशिश करता है लेकिन गार्ड उसे रोक देता है, वहाँ वह यह साबित करने की कोशिश करता है कि अब यह एक बच्चा नहीं बल्कि एक व्यस्क अपराधी है। पूरी फ़िल्म में अंटोनी के जैकेट का कॉलर हमेशा खड़ा ही रहता है, यह सिर्फ एक सिम्बॉल है उसकी इस सोच का कि वह बड़ों की तरह कुछ भी कर सकता है. बच्चे के माता-पिता उस पर कभी भी बहुत समय नहीं देते हैं जिससे वो उसके अंतरमन को समझ सकें, हमेशा वो उसे उसके द्वारा की जा रही तात्कालिक घटनाओं और दूसरों के द्वारा उसके बारे में की जा रही रिपोर्टिंग (जो कि उसे हमेशा गलत ही समझते हैं) के आधार पर उसका आकलन करते हैं और उसके बारे में अपनी एक मिथ्या राय बना लेते हैं.
फ़िल्म की खासियत यह भी है कि यह एक आम फ्रेंच समाज की कहानी है न कि वहाँ के एलिट वर्ग की. एक साधारण मध्यम वर्गीय परिवार की अपनी समस्यायें हैं और साथ में आधुनिक होने का बोध भी, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक बड़ा मूल्य है. इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर बच्चे की माँ और उसका सौतेला बाप, दोनों ही उस पर बहुत कम समय देते हैं. हद तो तब हो जाती है जब बच्चे को सजा देने के नाम पर घर से बाहर सामाजिक सेवाओं के भरोसे छोड़ दिया जाता है. यह वो स्थिति है जब बच्चे का मानसिक विकास इतना नहीं हुआ होता है कि वो ये निर्णय ले सके कि उसके लिए क्या अच्छा है क्या बुरा, लेकिन वो कुछ न कुछ करता जरूर है. और इस दशा में समाज की नजर में जब उससे कुछ गलत काम हो जाते हैं तो उसके लिए उसे ही दोषी मान लिया जाता है. इस फ़िल्म की कहानी में त्रूफो ने जो सवाल खड़े किए हैं वैसे सवाल हिन्दी साहित्य में मन्नू भन्डारी ने अपने उपन्यास "आपका बंटी" में भी खड़े किए हैं.
यह फ़िल्म पेरिस की भव्यता का वर्णन नहीं करती जहाँ सिर्फ रंगीन fountain हैं, और लुईXVI के स्टाइल के भव्य और बड़े मकान हैं बल्कि इस फ़िल्म में त्रूफो एक आम पेरिसवासी की नज़र से पेरिस को देखते हैं जहाँ वह अपार्टमेंट्स के छोटे छोटे फ्लैट्स के छोटे छोटे कमरों मे सोता है और छ: मंजिले कबूतरखाने से पेरिस की सड़कों पर आने के लिए उपर नीचे दौड़ लगाता है. त्रूफो को फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा का मुख्य स्तम्भ माना जाता है. उनकी इस फ़िल्म ने फ्रांस में न्यू वेव सिनेमा की नई इबारत लिखी. यह त्रूफो का अपना तरीका था जहाँ कोई सेट नहीं था बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आने वाले आम लोग थे. यह कहानी त्रूफो के अपने बचपन की कहानी भी थी जिसमें उन्होनें ज़िन्दगी की छोटी छोटी हरकतों को अपने कैमरे में बहुत बारीकी से पकड़ा था, जिसमें त्रूफो की अपनी एक अलग झलक दिखती है. यदि प्रसिद्ध फ्रेंच फ़िल्म आलोचक आन्द्रे बाज़िन के Auteur Theory की माने तो हर निर्देशक का चीजों को देखने और दिखाने का अपना एक अलग तरीका होता है और यह उसके हर फ़िल्म में झलकता है और एक तरह से वही फ़िल्म का असली लेखक होता है. त्रूफो बाज़िन के सही मायनों में अनुयायी थे.
द 400 ब्लोज़ का अंटोनी सुधारगृह में एक सामान्य ज़िन्दगी जी रहा है वह मनोचिकित्सक से बात करता है, यहाँ त्रूफो ने उसका जबर्दस्त आत्मवि
श्लेशण दिखाया है, वह अपने नए दोस्त के साथ बातें करता है, दूसरे बच्चों के साथ फुटबॉल खेलता है, और फिर जब आप उससे बिलकुल उम्मीद नहीं करते हैं वह वहाँ से भाग जाता है. वह दौड़ता जाता है, दौड़ता जाता है और समन्दर के किनारे पहुंच जाता है, जिसे देखना उसका सपना होता है, वह पानी में दौड़ता है, रुकता है और घूम कर पहली बार सीधे कैमरे में देखता है. त्रूफो ने इस शॉट को फ्रीज़ कर दिया है. इस दृश्य के कई मायने हो सकते हैं लेकिन असली मतलब तो शायद त्रूफो ही जानते हों. यह दृश्य अंटोनी की स्वतंत्रता के साथ साथ यह भी दिखाता है कि पूर्ण स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं हो सकती है.
द 400 ब्लोज़ एक masterful निर्देशक की masterpiece फ़िल्म है. त्रूफो इस फ़िल्म से आपको बेज़ुबान कर देते हैं.

Sunday, November 16, 2008

Comments on 'A Wednesday'

Some Comments on 'A Wednesday'

Ajit has written a short but 'to the point' review of this film. It is certainly a well made and 'tightly knit' film with no lose ends, and the pace keeps us expectant and bound to our seats right till the end. Naseeruddin and Kher also are rather realistic in their performances, and Naseeruddin's common man is probably a new addition to the variety of 'types' in the Indian cinema. The film brings out strongly the reaction of common people to the rather unbridled and tragically painful acts of violence and terrorism in India. The main protagonist in the story is able to use his rather 'fearsome skills' and over-reaching imagination, very unexpected for the 'actual common man', or let us say for the prototype of the common man to keep the entire police force on tenterhooks. Naseeruddin's 'common man', in the film hits back at three selected 'bad guys', that is terrorist, who although cooling their heels in jail are, as happens in our complex judicial system, able to keep the police frustrated and unable to drive home charges against them.

But in spite of his simple exterior the common man in A Wednesday turns out to be another barely camouflaged and rather hackneyed Amitabh Bachan in disguise, who single handedly and rather successfully, takes up the unfulfilled challenge facing the top brass of the Mumbai police force. In the process, the police department and the chief minister turn out to be the 'usual' inefficient but well meaning nincompoops, picking up the dropped clues, at the heels of our 'always-one-step-ahead' super-common man.

From their responses, this film seemed to have acted as a balm to many in the educated and professional sections, who understandably want to express their ire at the mindless violence disrupting our social and national fabric and the helplessness of our security agencies to put a stop to it. However, under its 'well stitched and fitting dress' A Wednesday turns out to be another formula film, which in spite of depicting a rather secularised police force, is not able to keep away from the vitiating practice of identifying 'a single community' as the villain in this sordid scenario.


Tuesday, October 14, 2008

CHILDREN OF HEAVEN

Children of Heaven माजिद माजिदी की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है. इस फ़िल्म की सबसे खास बात यह है कि इसे बहुत ही सादगी और कम खर्च में बनाया गया है, इसके बावजूद दर्शकों पर यह फ़िल्म अपना बहुत ही जबरदस्त प्रभाव छोड़ती है. फ़िल्म की कहानी तेहरान (ईरान) के एक ग़रीब परिवार के दो बच्चों, अली और ज़ारा और उनके जूते की कहानी है. लेकिन यह सिर्फ एक जोड़ी जूते या दो बच्चों की कहानी नहीं है, बल्कि इनके जरिए यह ईरानी समाज का आईना भी है. मुझे यहाँ कहना पड़ेगा कि इस फ़िल्म में जिस खूबसूरती के साथ symbols का इस्तेमाल किया गया है वह अदभूत है. ईरान में फ़िल्म बनाना और भारत में फ़िल्म बनाना दो अलग - अलग बातें हैं. यहाँ 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' ईरान की तुलना में निश्चित तौर पर ज्यादा है. यहाँ इसे एक Industry की हैसियत मिली है, जबकि ईरान में यह पूर्णत: सरकारी नियंत्रण में है. यदि आपको फ़िल्म बनानी है तो उसके लिए सरकारी ईज़ाजत ज़रूरी है, सरकार सभी तरह के उपकरण उपलब्ध करवाएगी, और फ़िल्म की ब्रॉडकास्टिंग के लिए एक सरकारी समित यह तय करेगी कि यह फ़िल्म ईरानी समाज के हित में है या नहीं। इन परिस्थितियों में एक निर्देशक के लिए अपनी फ़िल्म में वह सबकुछ कह पाना, दिखा पाना एक बड़ी चुनौती है। माजिदी ने इस चुनौती को बखुबी निभाया है और अपनी फ़िल्म में वह सबकुछ ड़ाला जो एक बेहतर फ़िल्म से हम उम्मीद करते हैं। उन्होनें बाल मनोविज्ञान के साथ साथ सामाजिक ऊँच नीच जैसे जटिल मुद्दों को जितने सरल ढ़ंग से प्रस्तुत किया है वह वाकई क़ाबिलेतारीफ़ है.
फ़िल्म में बच्चों की मासूम समझदारी आप को यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि बच्चे अपने घर-समाज में ही बड़े होते हैं और वहाँ उनको उचित वातावरण मिले इसके लिये माता-पिता और समाज हर तरह से ज़िम्मेदार हैं। ग़रीबी को एक बच्चा कितनी आसानी से अपने घर में रोज रोज की बातों के मार्फ़त समझ जाता है उसका एक शानदार नमूना अली और ज़ारा की एक बातचीत में देखने को मिलता है,
    " अली: जूता गीला कैसे हुआ है?
    ज़ारा : मैं इसे अब और नहीं पहन सकती।
    अली: यह गीला कैसे हुआ?
    ज़ारा: यह गटर में गिर गया था।
    अली: मैं गीले जूते पहन कर स्कूल कैसे जाउंगा?
    ज़ारा: ये बड़े हैं, मेरे पैर से निकल जाते हैं।
    अली: अच्छा बहाना है...
    ज़ारा: यह तुम्हारी ग़लती है। तुमने मेरे जूते गुमाए हैं उन्हें ढुंढो, नहीं तो मैं अब्बा को बता दूंगी।
    अली: मैं मार खाने से नहीं डरता। अब्बा के पास महीने के अंत तक पैसे नहीं हैं और उन्हें कुछ उधार लेना पड़ेगा।
    (दोनों रुंआसे होकर एक दूसरे को देखते हैं )
    अली: मुझे लगता है कि तुम मेरी बात समझती हो।
    (अली स्कूल की तरफ जाता है और ज़ारा घर की तरफ...)"

    इस फ़िल्म के निर्माड़ में काफी कम लागत लगी है, उसके बावजूद इस फ़िल्म का असर बहुत गहरा है।
    फ़िल्म में ज्यादातर छिपे हुए कैमरे का इस्तेमाल किया गया है ताकि बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति फ़िल्म में आ सके. माजिदी को उनके इस साहस का पूरा प्रतिफल मिला है.
    देखने में यह बच्चों जैसी सरल फ़िल्म लगती है लेकिन इस फ़िल्म के समझ की गहराइ बच्चों के मासूम सवालों सी ही गहरी है.


इस फ़िल्म के बारे में औरों के मत जानने के लिये IMDB Users Comment देखें.

Friday, October 3, 2008

Sophie's Choice


‘It's all about Streep ’
I have seen some stellar performances from actresses in the past few months- Juliette Binoche in Bleu and The Unbearable Lightness of Being, Annette Bening in Being Julia, Irene Jacob in Rouge and La Double Vie De Veronique. But I was simply blown away by Meryl Streep in Sophie’s Choice. Before I lauch into a eulogy of her acting prowess though, I want to deal with other aspects of this movie-
  • Kevin Kline is at his peak in this movie and I find it difficult to accept that Hollywood has failed to further tap the potential in this positively enthralling actor. His performance in this movie as Sophie’s all consuming, neurotic lover had me mesmerized from the word go. My personal favorite is the scene in which Sophie and Stingo return to her apartment to find Kline conducting a mock symphony.
  • Peter MacNicol had a tough job in this movie- towering performances from the main leads and a character that pales compared to the vigour, intensity and mystery of the other two. However, his portrayal of an unassuming Southerner out to pen a great novel is laudable and engages the viewer to an extent that is just right.
  • The story based on William Styron’s novel by the same name (and now I can’t wait to read it) manages to revisit the horrors of the Second World War and the nazi concentration camps and leaves the audience with a feeling of dread and goosebumps to boot.
  • For me, the film’s questioning of whether many of the choices that we make in our life are actual choices or merely illusions thereof also struck a chord.
  • The narrative style adopted in the movie wherein the intrigue shrouding Sophie and Nathan are revealed in bits throughout the film kept me rooted to my seat.
  • Cinematography and sets also get a thumb-up.
And now to come back to Streep; I have applauded her work in The Hours, The Bridges of Madison County and the otherwise annoying The Devil Wears Prada, but her performance in this movie will probably be captivating viewers for years to come. She looks almost ethereally beautiful in the movie, kudos to the photographer and the make-up artists. Her ability to get under the skin of her character and make you believe in it is simply mind-blowing. Be it her polish accented English, or her portrayal of a woman haunted by a past choice, or her passion for Nathan, Streep delivers and how. The scene in which she recounts her moments of horror in the concentration camp definitely raises the bar by which performances shall be judged, up by several notches. The movie though melancholic ends on a very fitting note that surprisingly does not depress (I refrain from adding more for fear of spoiling it for anyone who might care to read this). I have read some people complaining about how this movie was made merely to showcase Streep’s talents. If it is so and this film is the outcome, I would gladly beg for more of the same.

Saturday, September 27, 2008

Hello to old members

Dear friends,
great to see this new blog, and look forward to great views and chats.
Have read the two film reviews. They are quite interesting and would start sharing my own views too. With all the best

Tuesday, September 23, 2008

A Wednesday

मैने अभी अभी एक फ़िल्म A Wednesday देखी है. पहली बात मैं इस फ़िल्म के बारे में कहना चाहूंगा कि यह फ़िल्म इस बात का एक ठोस सबूत है कि हिन्दी सिनेमा धीरे धीरे ही सही लेकिन Heroism के मायाजाल से बाहर निकल रहा है. इस फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी, एडिटिंग और निर्देशन सभी कुछ काफी उम्दा किस्म का है. फ़िल्म में हिन्दी सिनेमा के दो दिग्गज कलाकारों (अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह) की अदाकारी का आप भरपूर लुत्फ उठाएंगे. फ़िल्म के बाकी दूसरे कलाकारों की अदाकारी ने भी अपने रंग बिखेरे हैं. जिम्मी शेरगिल ने इस फ़िल्म में एक tough पुलिस इंसपेक्टर की भूमिका निभाई है और उसमें जंचे भी हैं. फ़िल्म की कमज़ोर कड़ी दीपल शॉ (टी.वी. जर्नलिस्ट) हैं. उनकी अदाकारी और उनकी भूमिका दोनों को ही बेहतर किया जा सकता था. फ़िल्म का निर्देशन नीरज पाण्डेय ने किया है. उन्होनें तकनीकि दृष्टि से इसे एक सशक्त फ़िल्म बनाने की कोशिश की है और उसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे हैं. फ़िल्म के Background Music पर और काम किया जा सकता था. फ़िल्म के शुरुआती सीन प्रभावी हैं जिसमें पूरे शहर को अलग अलग नज़रिये से देखने की कोशिश की गई है. बाकी फ़िल्म भी काफी कसी हुई है और आप पूरे समय सिनेमा की कुर्सी से चिपके रहेंगे क्योंकि पूरी फ़िल्म में थ्रिलर सिक्वेंस दर सिक्वेंस बढ़ता जाता है.
फ़िल्म कल्पनाशीलता का माध्यम है. इस फ़िल्म के निर्माता ने भी एक बेह्तर और आतंकवाद मुक्त समाज की कल्पना की है और भारत के परिप्रेक्ष्य में एक आम आदमी की टीस और उसकी ताकत को दिखाने की बहुत सजग कोशिश की है. उन्होनें इस बात का ध्यान रखने की कोशिश की है कि आतंकवादी का मतलब मुसलमान नहीं होता है. लेकिन उनकी यह कोशिश इस मुद्दे के लिये नाक़ाफी है. उन्होनें समस्या के समाधान के लिये समाज, सरकार और तंत्र (system) के जटिल ताने-बाने को काफी सरलीकृत ढंग से प्रस्तुत किया है. बेहतर होता कि यदि नेता, पुलिस और तंत्र की जटिलताओं को प्रस्तुत किया गया होता और तब कोई समाधान ढूंढने की कोशिश की जाती. अभी फ़िल्म यही संदेश देती है कि समाज, सरकार और तंत्र (system) में सबकुछ ठीक है. लेकिन मेरे लिए इस पर यकीन करना मुश्किल है.
फ़िल्म का कॉमन मैन भी सुपर मैन की तरह लगता है उसकी हर प्लानिंग पुलिस और दूसरी एजेंसियों से दो कदम आगे की रहती है. यह एक तरह का मॉडल सुपर कॉमन मैन है जिसे निर्देशक ने समस्यायों के समाधान के लिए विकसित किया है. जब हम यहाँ समस्यायों की बात कर रहे हैं तो ये जानना भी जरूरी हो जाता है कि समस्याएं क्या हैं, इन समस्यायों की पहचान कौन कर रहा है, और इन समस्यायों से निपटने के उसके तरीके क्या क्या हैं? फ़िल्म में निर्देशक ने सरकारी एजेंसियों को सिद्धांत: धर्मनिरपेक्ष दिखाने की कोशिश की है, जिन तीन आतंकवादियों का चुनाव हमारा सुपर कॉमन मैन करता है वे एक विशेष समुदाय से आते हैं, जिन्हें खत्म करने के बाद यह सन्देश देने की कोशिश की जाती है कि यही समस्या का समाधान है. अब सवाल यह है कि निर्देशक या लेखक ने इसे ही अंतिम या सबसे बेहतर हल क्यों माना है? इसे समझना ज्यादा मुश्किल काम नहीं है. फ़िल्म का सुपर कॉमन मैन और उसका तरीका हमारे महान मध्यम वर्ग की दबी हुई हिंसक प्रतिक्रियात्मक भावना का पोषण करता है. यहाँ लोगों को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि आतंकवाद पर काबू पाने के लिए इस तरह के हिंसक तरीके और सोच ग़लत नहीं हैं. यहाँ यह दिखाया जा रहा है कि राजनीति और कानून लागू करने वाली एजेंसियाँ कुछ कर नहीं सकती इसीलिए हमारे कॉमन मैन का इन पर कोई विश्वास नहीं रह गया है. इस तरह आम लोगों में एक असुरक्षा की भावना पैदा की जाती है फिर इस तरह के एक final solution का पैकेज़ तैयार किया जाता है जो लोगों की कुछ नहीं कर पाने की भावना को एक सम्बल प्रदान करता है. उन्हें इस पैकेज़ में एक मसीहा दिखता है जो उनकी सारी समस्याओं का समाधान अपनी झोली में लेकर चलता है. लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि यह फ़िल्म इस तरह के पैकेज़ के जरिए लोगों का ध्यान वास्तविकता से हटाती है और उन्हें एक काल्पनिक सुख की अनुभूति कराती है जिसमें लोग साम्प्रदायिकता की राजनीति और उसकी वास्तविकताओं की पहचान ठीक ढंग से नहीं कर पाते हैं.
मेरे हिसाब से यही वो तथ्य हैं, जो इस फ़िल्म को असाधारण की कतार से साधारण मुम्बईया फ़िल्मों की कतार में ला पटकते हैं.


इस फ़िल्म के बारे में औरों के मत जानने के लिये IMDB Users Comment देखें.