Children of Heaven  माजिद  माजिदी की बेहतरीन फ़िल्मों  में से एक है.  इस  फ़िल्म की सबसे खास बात यह है  कि इसे बहुत ही सादगी और कम  खर्च में बनाया गया है,  इसके  बावजूद दर्शकों पर यह फ़िल्म  अपना बहुत ही जबरदस्त प्रभाव  छोड़ती है.  फ़िल्म  की कहानी तेहरान (ईरान)  के  एक ग़रीब परिवार के दो बच्चों,  अली और ज़ारा और उनके जूते की  कहानी है.  लेकिन  यह सिर्फ एक जोड़ी जूते या दो  बच्चों की कहानी नहीं है,  बल्कि  इनके जरिए यह ईरानी समाज का  आईना भी है.  मुझे  यहाँ कहना पड़ेगा कि इस फ़िल्म  में जिस खूबसूरती के साथ  symbols  का  इस्तेमाल किया गया है वह अदभूत   है.      ईरान  में फ़िल्म बनाना और भारत में  फ़िल्म बनाना दो अलग -  अलग  बातें हैं.  यहाँ  'अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता'  ईरान  की तुलना में निश्चित तौर पर  ज्यादा है.  यहाँ  इसे एक Industry  की  हैसियत मिली है,  जबकि  ईरान में यह पूर्णत: सरकारी नियंत्रण में है.   यदि  आपको फ़िल्म बनानी है तो उसके  लिए सरकारी ईज़ाजत ज़रूरी है,  सरकार  सभी तरह के उपकरण उपलब्ध  करवाएगी,  और  फ़िल्म की ब्रॉडकास्टिंग के  लिए एक सरकारी समित यह तय करेगी कि यह फ़िल्म ईरानी समाज के हित में है या नहीं। इन परिस्थितियों में एक निर्देशक के लिए अपनी फ़िल्म में वह सबकुछ कह पाना, दिखा पाना एक बड़ी चुनौती है। माजिदी ने इस चुनौती को बखुबी निभाया है और अपनी फ़िल्म में वह सबकुछ ड़ाला जो एक बेहतर फ़िल्म से हम उम्मीद करते हैं। उन्होनें बाल मनोविज्ञान के साथ साथ सामाजिक ऊँच नीच जैसे जटिल मुद्दों को जितने सरल ढ़ंग से प्रस्तुत किया है वह वाकई क़ाबिलेतारीफ़ है.फ़िल्म में बच्चों की मासूम समझदारी आप को यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि बच्चे अपने घर-समाज में ही बड़े होते हैं और वहाँ उनको उचित वातावरण मिले इसके लिये माता-पिता और समाज हर तरह से ज़िम्मेदार हैं। ग़रीबी को एक बच्चा कितनी आसानी से अपने घर में रोज रोज की बातों के मार्फ़त समझ जाता है उसका एक शानदार नमूना अली और ज़ारा की एक बातचीत में देखने को मिलता है,
- " अली:  जूता गीला कैसे हुआ है?
 
ज़ारा : मैं इसे अब और नहीं पहन सकती।
अली: यह गीला कैसे हुआ?
ज़ारा: यह गटर में गिर गया था।
अली: मैं गीले जूते पहन कर स्कूल कैसे जाउंगा?
ज़ारा: ये बड़े हैं, मेरे पैर से निकल जाते हैं।
अली: अच्छा बहाना है...
ज़ारा: यह तुम्हारी ग़लती है। तुमने मेरे जूते गुमाए हैं । उन्हें ढुंढो, नहीं तो मैं अब्बा को बता दूंगी।
अली: मैं मार खाने से नहीं डरता। अब्बा के पास महीने के अंत तक पैसे नहीं हैं और उन्हें कुछ उधार लेना पड़ेगा।
(दोनों रुंआसे होकर एक दूसरे को देखते हैं )
अली: मुझे लगता है कि तुम मेरी बात समझती हो।
(अली स्कूल की तरफ जाता है और ज़ारा घर की तरफ...)"
इस फ़िल्म के निर्माड़ में काफी कम लागत लगी है, उसके बावजूद इस फ़िल्म का असर बहुत गहरा है।
फ़िल्म में ज्यादातर छिपे हुए कैमरे का इस्तेमाल किया गया है ताकि बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति फ़िल्म में आ सके. माजिदी को उनके इस साहस का पूरा प्रतिफल मिला है.
देखने में यह बच्चों जैसी सरल फ़िल्म लगती है लेकिन इस फ़िल्म के समझ की गहराइ बच्चों के मासूम सवालों सी ही गहरी है.
इस फ़िल्म के बारे में औरों के मत जानने के लिये IMDB Users Comment देखें.
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