Saturday, September 27, 2008

Hello to old members

Dear friends,
great to see this new blog, and look forward to great views and chats.
Have read the two film reviews. They are quite interesting and would start sharing my own views too. With all the best

Tuesday, September 23, 2008

A Wednesday

मैने अभी अभी एक फ़िल्म A Wednesday देखी है. पहली बात मैं इस फ़िल्म के बारे में कहना चाहूंगा कि यह फ़िल्म इस बात का एक ठोस सबूत है कि हिन्दी सिनेमा धीरे धीरे ही सही लेकिन Heroism के मायाजाल से बाहर निकल रहा है. इस फ़िल्म की सिनेमैटोग्राफी, एडिटिंग और निर्देशन सभी कुछ काफी उम्दा किस्म का है. फ़िल्म में हिन्दी सिनेमा के दो दिग्गज कलाकारों (अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह) की अदाकारी का आप भरपूर लुत्फ उठाएंगे. फ़िल्म के बाकी दूसरे कलाकारों की अदाकारी ने भी अपने रंग बिखेरे हैं. जिम्मी शेरगिल ने इस फ़िल्म में एक tough पुलिस इंसपेक्टर की भूमिका निभाई है और उसमें जंचे भी हैं. फ़िल्म की कमज़ोर कड़ी दीपल शॉ (टी.वी. जर्नलिस्ट) हैं. उनकी अदाकारी और उनकी भूमिका दोनों को ही बेहतर किया जा सकता था. फ़िल्म का निर्देशन नीरज पाण्डेय ने किया है. उन्होनें तकनीकि दृष्टि से इसे एक सशक्त फ़िल्म बनाने की कोशिश की है और उसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे हैं. फ़िल्म के Background Music पर और काम किया जा सकता था. फ़िल्म के शुरुआती सीन प्रभावी हैं जिसमें पूरे शहर को अलग अलग नज़रिये से देखने की कोशिश की गई है. बाकी फ़िल्म भी काफी कसी हुई है और आप पूरे समय सिनेमा की कुर्सी से चिपके रहेंगे क्योंकि पूरी फ़िल्म में थ्रिलर सिक्वेंस दर सिक्वेंस बढ़ता जाता है.
फ़िल्म कल्पनाशीलता का माध्यम है. इस फ़िल्म के निर्माता ने भी एक बेह्तर और आतंकवाद मुक्त समाज की कल्पना की है और भारत के परिप्रेक्ष्य में एक आम आदमी की टीस और उसकी ताकत को दिखाने की बहुत सजग कोशिश की है. उन्होनें इस बात का ध्यान रखने की कोशिश की है कि आतंकवादी का मतलब मुसलमान नहीं होता है. लेकिन उनकी यह कोशिश इस मुद्दे के लिये नाक़ाफी है. उन्होनें समस्या के समाधान के लिये समाज, सरकार और तंत्र (system) के जटिल ताने-बाने को काफी सरलीकृत ढंग से प्रस्तुत किया है. बेहतर होता कि यदि नेता, पुलिस और तंत्र की जटिलताओं को प्रस्तुत किया गया होता और तब कोई समाधान ढूंढने की कोशिश की जाती. अभी फ़िल्म यही संदेश देती है कि समाज, सरकार और तंत्र (system) में सबकुछ ठीक है. लेकिन मेरे लिए इस पर यकीन करना मुश्किल है.
फ़िल्म का कॉमन मैन भी सुपर मैन की तरह लगता है उसकी हर प्लानिंग पुलिस और दूसरी एजेंसियों से दो कदम आगे की रहती है. यह एक तरह का मॉडल सुपर कॉमन मैन है जिसे निर्देशक ने समस्यायों के समाधान के लिए विकसित किया है. जब हम यहाँ समस्यायों की बात कर रहे हैं तो ये जानना भी जरूरी हो जाता है कि समस्याएं क्या हैं, इन समस्यायों की पहचान कौन कर रहा है, और इन समस्यायों से निपटने के उसके तरीके क्या क्या हैं? फ़िल्म में निर्देशक ने सरकारी एजेंसियों को सिद्धांत: धर्मनिरपेक्ष दिखाने की कोशिश की है, जिन तीन आतंकवादियों का चुनाव हमारा सुपर कॉमन मैन करता है वे एक विशेष समुदाय से आते हैं, जिन्हें खत्म करने के बाद यह सन्देश देने की कोशिश की जाती है कि यही समस्या का समाधान है. अब सवाल यह है कि निर्देशक या लेखक ने इसे ही अंतिम या सबसे बेहतर हल क्यों माना है? इसे समझना ज्यादा मुश्किल काम नहीं है. फ़िल्म का सुपर कॉमन मैन और उसका तरीका हमारे महान मध्यम वर्ग की दबी हुई हिंसक प्रतिक्रियात्मक भावना का पोषण करता है. यहाँ लोगों को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि आतंकवाद पर काबू पाने के लिए इस तरह के हिंसक तरीके और सोच ग़लत नहीं हैं. यहाँ यह दिखाया जा रहा है कि राजनीति और कानून लागू करने वाली एजेंसियाँ कुछ कर नहीं सकती इसीलिए हमारे कॉमन मैन का इन पर कोई विश्वास नहीं रह गया है. इस तरह आम लोगों में एक असुरक्षा की भावना पैदा की जाती है फिर इस तरह के एक final solution का पैकेज़ तैयार किया जाता है जो लोगों की कुछ नहीं कर पाने की भावना को एक सम्बल प्रदान करता है. उन्हें इस पैकेज़ में एक मसीहा दिखता है जो उनकी सारी समस्याओं का समाधान अपनी झोली में लेकर चलता है. लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि यह फ़िल्म इस तरह के पैकेज़ के जरिए लोगों का ध्यान वास्तविकता से हटाती है और उन्हें एक काल्पनिक सुख की अनुभूति कराती है जिसमें लोग साम्प्रदायिकता की राजनीति और उसकी वास्तविकताओं की पहचान ठीक ढंग से नहीं कर पाते हैं.
मेरे हिसाब से यही वो तथ्य हैं, जो इस फ़िल्म को असाधारण की कतार से साधारण मुम्बईया फ़िल्मों की कतार में ला पटकते हैं.


इस फ़िल्म के बारे में औरों के मत जानने के लिये IMDB Users Comment देखें.