
फ़िल्म में बच्चों की मासूम समझदारी आप को यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि बच्चे अपने घर-समाज में ही बड़े होते हैं और वहाँ उनको उचित वातावरण मिले इसके लिये माता-पिता और समाज हर तरह से ज़िम्मेदार हैं। ग़रीबी को एक बच्चा कितनी आसानी से अपने घर में रोज रोज की बातों के मार्फ़त समझ जाता है उसका एक शानदार नमूना अली और ज़ारा की एक बातचीत में देखने को मिलता है,
- " अली: जूता गीला कैसे हुआ है?
ज़ारा : मैं इसे अब और नहीं पहन सकती।
अली: यह गीला कैसे हुआ?
ज़ारा: यह गटर में गिर गया था।
अली: मैं गीले जूते पहन कर स्कूल कैसे जाउंगा?
ज़ारा: ये बड़े हैं, मेरे पैर से निकल जाते हैं।
अली: अच्छा बहाना है...
ज़ारा: यह तुम्हारी ग़लती है। तुमने मेरे जूते गुमाए हैं । उन्हें ढुंढो, नहीं तो मैं अब्बा को बता दूंगी।
अली: मैं मार खाने से नहीं डरता। अब्बा के पास महीने के अंत तक पैसे नहीं हैं और उन्हें कुछ उधार लेना पड़ेगा।
(दोनों रुंआसे होकर एक दूसरे को देखते हैं )
अली: मुझे लगता है कि तुम मेरी बात समझती हो।
(अली स्कूल की तरफ जाता है और ज़ारा घर की तरफ...)"
इस फ़िल्म के निर्माड़ में काफी कम लागत लगी है, उसके बावजूद इस फ़िल्म का असर बहुत गहरा है।
फ़िल्म में ज्यादातर छिपे हुए कैमरे का इस्तेमाल किया गया है ताकि बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति फ़िल्म में आ सके. माजिदी को उनके इस साहस का पूरा प्रतिफल मिला है.
देखने में यह बच्चों जैसी सरल फ़िल्म लगती है लेकिन इस फ़िल्म के समझ की गहराइ बच्चों के मासूम सवालों सी ही गहरी है.
इस फ़िल्म के बारे में औरों के मत जानने के लिये IMDB Users Comment देखें.
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