Sunday, January 31, 2021
Scam 1992- The Harshad Mehta Story
Friday, May 20, 2011
उनकी ज़िन्दगी, उनका भय, उनके सपने - The Lives of Others
Saturday, March 20, 2010
Text book, Hitler, Movie
The Year 2006-07 took me to Ajmer, where I went through training of Two Years as Secondary level teacher. The year 2005 belonged to the National Curriculum Framework that recommends that children’s life at school must be linked to their life outside the school. This principle marks a departure from the legacy of bookish learning which continues to shape our system and causes a gap between the school, home and community.
Regional Institute of Education, Ajmer had a Demonstration Multi Purpose School, where we authorised to experiment with the new text books of NCERT. I was allotted Social Sciences for Class IX, where I was exploring the ways to resurface the “facts” with the knowledge outside the class room. The title of the text book India and the Contemporary World- I. The Preface of the book assured the children that they will witness as how the story of India’s pasts is related to the larger history of the world. We cannot understand what was happening within India unless we see this connection. The changing scenario towards learning in Social Sciences had been initiated through Eklavya’s text books on Social Sciences. The matrix of the Economies had brought inter relation ship between the Industrialized/Imperialistic Nations with there Colonies. History should be contained with totality, blurring all forms of territorial boundaries.
The Chapter 3 of the text book is Nazism and the rise of Hitler .The Chapter starts with a story about a eleven year old German boy called Helmuth, where he overheard his parents plotting to kill the entire family. His father smells the revenge from the allies for what they did with Jews in Germany.
The Chapter 1 of the Movie Inglorious Basterds opened juxtaposed to my text book, where the German Colonel arrives in farm house to interrogate a farmer. The Colonel was suspecting him for hiding Jews in the basement of the house. The farmer could not agree to Colonel demands of disclosing about the whereabouts of the family. The Colonel ordered the soldiers to shoot the family. The entire family killed except there daughter. Quentin had divided the movie into different frames that he referred it as Chapters. The Chapters are open with the introduction to the characters and then tried to link with the vicious mind that the characters had because of the violent connections with the previous Chapter. Each Chapter will be start with long conversation, sometime its boring too. But the Characters so much violent and negativity in them that it will hold your breathe. Each of the Chapters end with a violent note.
Every Character is having a plot in there own minds to reach out a violent climax to fulfill there desires for which they were struggling through out the Chapters. The Climax of the movie will take us to the screening of the Propaganda Movie in a theater owned by the only surviving daughter from the farm house of Chapter One. The movie show cases the mastery of propaganda mechanism that had been used by the Nazi to defend there action towards Allies. Hitler along with his Propaganda Minister Gobbles also present at the theater for its Premier. Quentin’s movie on showing the art of propaganda by Hitler would work as adding information for my Children of Aravali International School and Army School.
I would still preferred Charlie Chaplin's The Great Dictator in stead of Quentin’s violent day with Hitler and there men. This Movie happened to be his first talking picture. The movie revolves around Hitler and a Jews barber both played by Chaplin. The innocent childish face of Hitler playing with globe. The violent speeches to terrorize the Jews settlers. The other Chaplin was romanticizing himself in the ghetto.
I would prefer that the Western Film makers should revisit Hitler 's Mein Kampf (My Struggle).Though the autobiography is banned in Europe but one get that book at almost every Railway Platform and Bus Station in India. We can bring out a Cinematic Experience on Hitler, if we could show his childhood, adolescent and youth. How he had been transformed from failed son/artist/lover and then the President of the Republic. It seems to be the typical catch line from the latest blockbuster of Hindi cinema My Name is Khan which reads “A journey of an extra ordinary man”.
Monday, February 23, 2009
दिल्ली 6 : ह्क़ीकत और फ़साने का ग्रे शेड
दिल्ली 6 में दिल्ली की धड़कन है, आप चाँदनी चौक की भीड़ को, उसकी तंग गलियों को, वहाँ के लोगों को, उनकी गन्ध को छू सकते हैं. राकेश की टीम में बड़े नामचीन कलाकार हैं. सभी ने अपनी जिम्मेदारियाँ बखुबी निभाई हैं. दिल्ली 6 दिल्ली के सामाजिक ताने-बाने की बारीक रेशों से बुनी गई एक चादर है जिसमें वहाँ के मूल रंगों के पच्चीकारी है, रिश्तों की गर्माहट भी है, चादर में कहीं-कहीं छेद भी हैं, कहीं से चादर उघड़ भी रही है और कहीं इस पर लगा पैबन्द भी अलग से दिखाई देता है. आप को बार-बार यह सोचना पड़ेगा कि फ़िल्म की दिल्ली और जो दिल्ली हम देखते हैं, जिसे जानते हैं, उसमें हक़ीकत के ज्यादा करीब कौन है... राकेश की इस फ़िल्म में रूपकों (Metaphors) का जबर्दस्त इस्तेमाल किया गया है. मसलन, रामलीला और दिल्ली 6 के आम आदमी की ज़िन्दगी, कबुतर (जिसके पंख बन्धे हुए हैं) और बिट्टू, काला बन्दर और इंसान के अन्दर का राक्षस, पागल फ़कीर और उसका आईना. राकेश के रूपक फ़िल्म पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं. इनके जरिए राकेश ने कई मुद्दों को बड़ी आसानी से handle किया है. रंग दे बसंती और दिल्ली 6 का पहला अंतर तो metaphors के इस्तेमाल का ही है.
सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं को जितनी सुक्ष्मता से फ़िल्म में पिरोया गया है उतनी ही बेबाकी से उसके दूसरे पहलुओं को उधेड़ा भी गया है. कहने को हम मॉडर्न हो गए हैं लेकिन हमारे अन्धविश्वास की ग्रंथि अभी जस की तस है. एक तरफ तो घर के अन्दर और बाहर के प्रेम को देखकर ऎसा लगता है कि स्वर्ग कहीं है तो यहीं है, लेकिन जैसे ही आप उस प्रेम की परतों को हटाना शुरू करते हैं तो उसके अन्दर छिपे घृणा, ईर्ष्या, बेइमानी, फरेब, छुआछूत के कई कई वीभत्स रूप दिखने लगते हैं. इस फ़िल्म मे राकेश रिश्तों की बुनावट की जटिलताओं में और गहरे जाते हैं. समाज में कुछ भी काला या सफेद नहीं है. लोग वही हैं जो टूट कर मोहब्बत भी करते हैं और उतनी ही शिद्दत से नफ़रत भी.
आज जिस समय और समाज में हम जी रहे हैं वहाँ रिश्तों में ऎसी मोहब्बत और गर्माहट कम ही देखने को मिलती है. नफ़रत का बोलबाला ज्यादा है. नफ़रत की राजनीति हो रही है, जो मोहब्बत के पैरोकार हैं वे भी नफ़रत की ही बात करते हैं. इसी देशकाल में राकेश दिल्ली 6 में एक आशावादी सोच के साथ अपनी फ़िल्म प्रस्तुत कर रहे हैं, जहाँ उन्हें लगता है कि इस अन्धेरे के बाद फिर उजाला होगा. फ़िल्म में अन्धेरे की काली रात ज्यादा लम्बी नहीं है, सुबह का उजाला जल्दी आ जाता है, लेकिन असल ज़िन्दगी में नफ़रत की इस काली रात के बाद का उजाला अभी दिखाई नहीं दे रहा है.
फ़िल्म के मुख्य किरदार रौशन (अभिषेक बच्चन) और बिट्टू (सोनम कपूर) का काम उम्दा है. वहीदा रहमान, ऋषि कपूर, ओमपुरी, प्रेम चोपड़ा, सुप्रिया पाठक, अतुल कुलकर्णी, दिव्या दत्ता इन सभी ने भी काफी अच्छा अभिनय किया है.
अभिषेक की यह शायद पहली फ़िल्म होगी जिसकी सफलता में उनकी अहम हिस्सेदारी को स्वीकार किया जाएगा. अभिषेक एक अच्छे कलाकार हैं और उनसे आप कुछ खास तरह की भूमिकाएं काफी अच्छे ढंग से करवा सकते हैं. इस फ़िल्म में वो एक ऎसे एन.आर.आई. की भूमिका में हैं जिसकी परवरिश अमरिका में होती है और उनके माता-पिता कुछ बुरे अनुभवों के बाद भारत छोड़ अमरिका में बस जाते हैं, बावजूद इसके, वे अपनी यादों और संस्कारों को छोड़ नहीं पाते हैं. रौशन (अभिषेक बच्चन) इन्हीं तनावों और दोराहों को देखते हुए बड़े हुए हैं. रौशन एक ऎसा युवा है जिसका बाहरी लिबास तो पश्चिम के आधुनिक रंग में रंगा हुआ है लेकिन उसके अन्दर की आत्मा में ठेठ भारतीयता का प्रभाव बहुत गहरा है. यह युवा अपने इन्हीं दो विरोधाभासों के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश में लगा है. अभिषेक बच्चन ने अपनी अदाकारी में इस नौजवान के इन तनावों और आकांक्षाओं की बारीकियों की ज़हीन बुनावट पेश की है.
बिट्टू (सोनम कपूर) की यह दूसरी फ़िल्म है. उनकी ताजगी पूरी फ़िल्म में छलकती रहती है और सबको तरोताजा कर देती है. बिट्टू एक आम मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की है जिसे अपने परिवार और समाज के रीति रिवाजों को भी निभाना है और अपने दिल की आवाज़ सुन कर अपनी एक अलग पहचान भी बनानी है. दिल की आवाज़ और रीति रिवाज अक्सर आपस में टकराते हैं और बिट्टू हमेशा कोई नया रास्ता निकालने की जुगत में लगी रहती है. बिट्टू की इच्छाएं, उसकी अपेक्षाएं एक आम भारतीय लड़की की इच्छाएं और अपेक्षाएं हैं जो परिवार और समाज की मान्यताओं के बोझ तले घुट घुट कर दम तोड़ देती हैं, लेकिन इस हादसे की किसी को कोई खबर नहीं होती है. सोनम कपूर ने इस आम लड़की की इच्छाओं, अपेक्षाओं खुशियों और दुखों को सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जिया है. इस किरदार की इच्छाओं, अपेक्षाओं खुशियों और दुखों के संगीत को आप सोनम की अदाकारी में सुन सकते हैं.
एक दादी, जो मन्दिर जाती है, तुलसी में पानी डालती है, अपनी मुसलमान बहु से बहुत प्यार भी करती है और मरने के लिए अमरिका से भारत आती है, यहाँ मरने की तैयारी करती है ताकि अपनों के बीच मर सके. वहीदा रहमान ने इस दादी की आस्थाओं, प्रेम और दो संस्कृतियों के तनावों और दुखों को एक साथ बहुत ही खूबसूरती के साथ इस फ़िल्म में जीवंत किया है. अली अंकल (ऋषि कपूर), एक ज़िन्दादिल दिल्ली वाला, एक उर्मदराज प्रेमी, दिल्ली का एक मध्यवर्गीय आम आदमी जो वहाँ के तौर-तरीकों से वाकिफ़ है. ऋषि कपूर दिखते भी अच्छे हैं और दिखाते भी अच्छा हैं. मदन गोपाल (ओमपुरी), एक पितृसतात्मक परिवार का मुखिया, बिट्टू के पिता, रौशन के रिश्ते के चचा, इनके लिए बेटियाँ और औरतें घर की चारदीवारी के अन्दर रहने वाले प्राणी हैं, जिन्हे अपने बारे में सोचने का कोई हक़ नहीं है. मदन गोपाल जी को लगता है कि वे ही इन प्राणियों का उद्धार कर सकते हैं, खासकर अपनी बेटी बिट्टू का. वैसे मदन गोपाल और उनके भाई की तनातनी के बीच इनकी बहन यानि बिट्टू की बुआ पूरी फ़िल्म में कंवारी ही रह जाती है. मदन गोपाल जी समझदार इतने हैं कि बिट्टू की शादी के लिए "योग्य वर" के लिए और विरादरी में अपनी नाक ऊँची रखने के लिए नए जमाने के लालाजी (प्रेम चोपड़ा) के महाजनी झाँसे में बिना किसी दिक्कत के फंस जाते हैं. और प्रेम चोपड़ा साहब जिस बात के लिए प्रसिद्ध हैं वो इस फ़िल्म में भी लालाजी के उनके किरदार में दमकता है. सुप्रिया पाठक की अदाकारी के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है. उनकी अदाकारी घर के अन्दर की देसी दिल्ली की सोन्धी गन्ध का एहसास कराती है, उसे जीवंत बनाती है. अतुल कुलकर्णी ने गोबर (एक बेवकूफ समझा जानेवाला आदमी) का किरदार और दिव्या दत्ता ने जलेबी (एक अछूत झाडू लगाने वाली) का किरदार बहुत ही सुंदर ढंग से निभाया है. ये किरदार दिल्ली 6 की सुन्दर दिल्ली के कमजोर धागे और पैबन्द हैं जिन्हें बहुत ही सही ढंग से राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल किया है और इन कलाकारों ने इसमें जान डाल दी है. फ़िल्म में दो बच्चे भी हैं, लेकिन उनका काम बड़ों से कम नहीं है. फ़िल्म में बच्चों के नज़रिए से भी चीजों को देखने की कोशिश की गई है.
फ़िल्म में यदि संगीत की बात न की जाए तो बात पूरी नहीं होती है, और जब ए.आर.रहमान का संगीत हो तब तो यह बहुत ही लाजमी हो जाता है. रहमान को स्लमडॉग मिलेनायर के लिए ऑस्कर मिल चुका है. दिल्ली 6 का संगीत भी बहुत अच्छा है. इसका एक गाना "मसक्कली मटक्कली" तो सबकी ज़ुबान पर चढ़ ही चुका है. बाकी के गाने भी अपना रंग दिखाने लगे हैं. फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर चाँदनी चौक की ज़िन्दगी का संगीत है.
राकेश ओमप्रकाश मेहरा शायद प्रसून जोशी के शब्दों, ए.आर. रहमान के संगीत और अमिताभ बच्चन की आवाज़ में अपनी फ़िल्म का सन्देश कुछ इस तरह देना चाहते हैं...
झाँक खुद में वो न तुझसे दूर है
इश्क है उससे तो सबसे इश्क कर
इस ईबादत का यही दस्तूर है
इसमें उसमें और उसमें है वही
यार मेरा हर तरफ भरपूर है...
Thursday, December 4, 2008
The 400 Blows
Written by François Truffaut, Marcel Moussy
Starring: Jean-Pierre Léaud, Claire Maurier, Albert Rémy, Guy Decomble
Music by Jean Constantin. Cinematography: Henri Decaë
Release date(s): May 4, 1959, November 16, 1959
Running time: 99 min. Language: French. Distributed by Cocinor
द ४०० ब्लोज़ फ्रांसुआ त्रूफो की अपनी जीवनी पर आधारित फ़िल्म है। यह फ़िल्म किशोरवय बच्चों के उपर बनी कुछ सबसे अच्छी फ़िल्मों में शुमार की जाती है. इस फ़िल्म में अंटोनी नाम के एक लड़के का बचपन है. उसका बचपन उसके अपने घर में माता पिता की अनदेखी और स्कूल में बहुत ही कठोर किस्म के शिक्षकों के व्यवहार के बीच घुट रहा है. इस घुटन की जानकारी किसी को नहीं है. यह घुटन जब अनजाने में ही अपनी मुक्ति के लिए ज़िंदगी के दूसरे रास्तों पर भटकने लगता है तब क्या - क्या होता है जो उस मासूम अंटोनी के साथ नहीं होना चाहिए था, जिसके लिए वो कत्तई जिम्मेदार नहीं था, इन्हीं कुछ बारीक सवालों और तथ्यों का बहुत ही संवेदनात्मक चित्रण इस फ़िल्म में किया गया है. इस फ़िल्म में आप त्रूफो के बचपन के कुछ बहुत ही व्यक्तिगत पहलुओं का अनुभव करेंगे. फ़िल्म का मुख्य किरदार अंटोनी अपने फ्लैट के पिछवाड़े में बने एक छोटे से कमरे में महान फ्रेंच लेखक बाल्ज़ाक को अपनी भक्ति भावना प्रदर्शित करने के लिए उसके पोस्टर के सामने मोमबत्ती जलाता है और फिर घर में आग लगने जैसी स्थिति पैदा हो जाती है. उसे बाल्ज़ाक की रचनाएं बहुत पसन्द हैं और इसी छोटे से कमरे में अंटोनी बाल्ज़ाक की किताबों में खोया रहता है.
त्रूफो ने इस फ़िल्म में बच्चे की उन सभी हरकतों का जिक्र किया है जिसे हमारे 'सभ्य समाज' में ग़लत कहा जाता है. लेकिन बच्चा यह सब कैसे और क्यों करता है इसका बहुत ही तार्किक sequence इस फ़िल्म में देखा जा सकता है. मसलन, यदि हम उसके स्कूल से शुरुआत करें, तो स्कूल उसके लिए एक ऎसी जगह बन गई है जहाँ परिस्थितिवश उसे अनजाने में ही ज्यादातर शिक्षकों का कोपभाजन बनना पड़ता है, जबकि सामान्यत: उसकी कोई गलती नहीं होती है. शिक्षक उसके साथ एक शैतान बच्चे की तरह व्यवहार करते हैं, उसे बात बात पर सजा दी जाती है और इस तरह का व्यवहार उसके अन्दर एक कुंठित विद्रोही स्वभाव को जन्म देता है. एक 14 साल के बच्चे के शरीर के भीतर एक व्यस्क मानसिकता जन्म लेने लगती है. उसके इन बदलावों को उसके दूसरे कामों में देखा जा सकता है. जैसे वो अपने दोस्त के कहने पर अपने पिता के ऑफिस से टाइपराइटर चुरा लेता है और उसे बेचने की कोशिश करता है लेकिन जब वह इसमें सफल नहीं होता है तो वापस उसे ऑफिस में रखने जाता है जहाँ उसे गार्ड पकड़ लेता है और उसके पिता को बुलाता है. इस सीन में त्रूफो का सिनेमैटिक इंटेलिजेंस दिखता है. जब वह टाइपराइटर रखने जाता है तो उसने एक हैट लगाई होती है जिसे वह पकड़े जाने के बाद उतारने की कोशिश करता है लेकिन गार्ड उसे रोक देता है, वहाँ वह यह साबित करने की कोशिश करता है कि अब यह एक बच्चा नहीं बल्कि एक व्यस्क अपराधी है। पूरी फ़िल्म में अंटोनी के जैकेट का कॉलर हमेशा खड़ा ही रहता है, यह सिर्फ एक सिम्बॉल है उसकी इस सोच का कि वह बड़ों की तरह कुछ भी कर सकता है. बच्चे के माता-पिता उस पर कभी भी बहुत समय नहीं देते हैं जिससे वो उसके अंतरमन को समझ सकें, हमेशा वो उसे उसके द्वारा की जा रही तात्कालिक घटनाओं और दूसरों के द्वारा उसके बारे में की जा रही रिपोर्टिंग (जो कि उसे हमेशा गलत ही समझते हैं) के आधार पर उसका आकलन करते हैं और उसके बारे में अपनी एक मिथ्या राय बना लेते हैं.
फ़िल्म की खासियत यह भी है कि यह एक आम फ्रेंच समाज की कहानी है न कि वहाँ के एलिट वर्ग की. एक साधारण मध्यम वर्गीय परिवार की अपनी समस्यायें हैं और साथ में आधुनिक होने का बोध भी, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक बड़ा मूल्य है. इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर बच्चे की माँ और उसका सौतेला बाप, दोनों ही उस पर बहुत कम समय देते हैं. हद तो तब हो जाती है जब बच्चे को सजा देने के नाम पर घर से बाहर सामाजिक सेवाओं के भरोसे छोड़ दिया जाता है. यह वो स्थिति है जब बच्चे का मानसिक विकास इतना नहीं हुआ होता है कि वो ये निर्णय ले सके कि उसके लिए क्या अच्छा है क्या बुरा, लेकिन वो कुछ न कुछ करता जरूर है. और इस दशा में समाज की नजर में जब उससे कुछ गलत काम हो जाते हैं तो उसके लिए उसे ही दोषी मान लिया जाता है. इस फ़िल्म की कहानी में त्रूफो ने जो सवाल खड़े किए हैं वैसे सवाल हिन्दी साहित्य में मन्नू भन्डारी ने अपने उपन्यास "आपका बंटी" में भी खड़े किए हैं.
यह फ़िल्म पेरिस की भव्यता का वर्णन नहीं करती जहाँ सिर्फ रंगीन fountain हैं, और लुईXVI के स्टाइल के भव्य और बड़े मकान हैं बल्कि इस फ़िल्म में त्रूफो एक आम पेरिसवासी की नज़र से पेरिस को देखते हैं जहाँ वह अपार्टमेंट्स के छोटे छोटे फ्लैट्स के छोटे छोटे कमरों मे सोता है और छ: मंजिले कबूतरखाने से पेरिस की सड़कों पर आने के लिए उपर नीचे दौड़ लगाता है. त्रूफो को फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा का मुख्य स्तम्भ माना जाता है. उनकी इस फ़िल्म ने फ्रांस में न्यू वेव सिनेमा की नई इबारत लिखी. यह त्रूफो का अपना तरीका था जहाँ कोई सेट नहीं था बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में आने वाले आम लोग थे. यह कहानी त्रूफो के अपने बचपन की कहानी भी थी जिसमें उन्होनें ज़िन्दगी की छोटी छोटी हरकतों को अपने कैमरे में बहुत बारीकी से पकड़ा था, जिसमें त्रूफो की अपनी एक अलग झलक दिखती है. यदि प्रसिद्ध फ्रेंच फ़िल्म आलोचक आन्द्रे बाज़िन के Auteur Theory की माने तो हर निर्देशक का चीजों को देखने और दिखाने का अपना एक अलग तरीका होता है और यह उसके हर फ़िल्म में झलकता है और एक तरह से वही फ़िल्म का असली लेखक होता है. त्रूफो बाज़िन के सही मायनों में अनुयायी थे.
द 400 ब्लोज़ का अंटोनी सुधारगृह में एक सामान्य ज़िन्दगी जी रहा है वह मनोचिकित्सक से बात करता है, यहाँ त्रूफो ने उसका जबर्दस्त आत्मविश्लेशण दिखाया है, वह अपने नए दोस्त के साथ बातें करता है, दूसरे बच्चों के साथ फुटबॉल खेलता है, और फिर जब आप उससे बिलकुल उम्मीद नहीं करते हैं वह वहाँ से भाग जाता है. वह दौड़ता जाता है, दौड़ता जाता है और समन्दर के किनारे पहुंच जाता है, जिसे देखना उसका सपना होता है, वह पानी में दौड़ता है, रुकता है और घूम कर पहली बार सीधे कैमरे में देखता है. त्रूफो ने इस शॉट को फ्रीज़ कर दिया है. इस दृश्य के कई मायने हो सकते हैं लेकिन असली मतलब तो शायद त्रूफो ही जानते हों. यह दृश्य अंटोनी की स्वतंत्रता के साथ साथ यह भी दिखाता है कि पूर्ण स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं हो सकती है.
द 400 ब्लोज़ एक masterful निर्देशक की masterpiece फ़िल्म है. त्रूफो इस फ़िल्म से आपको बेज़ुबान कर देते हैं.
Sunday, November 16, 2008
Comments on 'A Wednesday'
Some Comments on 'A Wednesday'
Ajit has written a short but 'to the point' review of this film. It is certainly a well made and 'tightly knit' film with no lose ends, and the pace keeps us expectant and bound to our seats right till the end. Naseeruddin and Kher also are rather realistic in their performances, and Naseeruddin's common man is probably a new addition to the variety of 'types' in the Indian cinema. The film brings out strongly the reaction of common people to the rather unbridled and tragically painful acts of violence and terrorism in India. The main protagonist in the story is able to use his rather 'fearsome skills' and over-reaching imagination, very unexpected for the 'actual common man', or let us say for the prototype of the common man to keep the entire police force on tenterhooks. Naseeruddin's 'common man', in the film hits back at three selected 'bad guys', that is terrorist, who although cooling their heels in jail are, as happens in our complex judicial system, able to keep the police frustrated and unable to drive home charges against them.
But in spite of his simple exterior the common man in A Wednesday turns out to be another barely camouflaged and rather hackneyed Amitabh Bachan in disguise, who single handedly and rather successfully, takes up the unfulfilled challenge facing the top brass of the Mumbai police force. In the process, the police department and the chief minister turn out to be the 'usual' inefficient but well meaning nincompoops, picking up the dropped clues, at the heels of our 'always-one-step-ahead' super-common man.
From their responses, this film seemed to have acted as a balm to many in the educated and professional sections, who understandably want to express their ire at the mindless violence disrupting our social and national fabric and the helplessness of our security agencies to put a stop to it. However, under its 'well stitched and fitting dress' A Wednesday turns out to be another formula film, which in spite of depicting a rather secularised police force, is not able to keep away from the vitiating practice of identifying 'a single community' as the villain in this sordid scenario.
Tuesday, October 14, 2008
CHILDREN OF HEAVEN
फ़िल्म में बच्चों की मासूम समझदारी आप को यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि बच्चे अपने घर-समाज में ही बड़े होते हैं और वहाँ उनको उचित वातावरण मिले इसके लिये माता-पिता और समाज हर तरह से ज़िम्मेदार हैं। ग़रीबी को एक बच्चा कितनी आसानी से अपने घर में रोज रोज की बातों के मार्फ़त समझ जाता है उसका एक शानदार नमूना अली और ज़ारा की एक बातचीत में देखने को मिलता है,
- " अली: जूता गीला कैसे हुआ है?
ज़ारा : मैं इसे अब और नहीं पहन सकती।
अली: यह गीला कैसे हुआ?
ज़ारा: यह गटर में गिर गया था।
अली: मैं गीले जूते पहन कर स्कूल कैसे जाउंगा?
ज़ारा: ये बड़े हैं, मेरे पैर से निकल जाते हैं।
अली: अच्छा बहाना है...
ज़ारा: यह तुम्हारी ग़लती है। तुमने मेरे जूते गुमाए हैं । उन्हें ढुंढो, नहीं तो मैं अब्बा को बता दूंगी।
अली: मैं मार खाने से नहीं डरता। अब्बा के पास महीने के अंत तक पैसे नहीं हैं और उन्हें कुछ उधार लेना पड़ेगा।
(दोनों रुंआसे होकर एक दूसरे को देखते हैं )
अली: मुझे लगता है कि तुम मेरी बात समझती हो।
(अली स्कूल की तरफ जाता है और ज़ारा घर की तरफ...)"
इस फ़िल्म के निर्माड़ में काफी कम लागत लगी है, उसके बावजूद इस फ़िल्म का असर बहुत गहरा है।
फ़िल्म में ज्यादातर छिपे हुए कैमरे का इस्तेमाल किया गया है ताकि बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति फ़िल्म में आ सके. माजिदी को उनके इस साहस का पूरा प्रतिफल मिला है.
देखने में यह बच्चों जैसी सरल फ़िल्म लगती है लेकिन इस फ़िल्म के समझ की गहराइ बच्चों के मासूम सवालों सी ही गहरी है.